स्वातंत्र्योत्तर काल की, हिन्दी कविता को नई कविता, अकविता, श्मशानीपीढ़ी की कविता, भूखी पीढ़ी की कविता, आज की कविता, अखबारी कविता आदि विशेषणों, नारों से सजाकर पाठकों के समक्ष रखा गया। परन्तु 65 वर्ष बीत गए, कविता स्वेच्छाचारी कवि की निजी संवेदना की दासी बनी रही। कविता की आत्मा की स्वच्छन्दता, भाषा सौष्टव, शिल्प-विन्यास, तटस्थ भाव, अभिव्यक्ति का अभाव बना रहा, ऐसी स्थिति इसलिए भी रही कि कविता, कवि, आलोचक के अहंभाव-बोध और एकांगिक नजरिए से बंधकर अपना प्रभाव खोने लगी। उसे वास्तुपरक विवेचना का छद्म जामा पहनाया जाने लगा। उसे रचनात्मकता से दूर तथाकथित मानसिक तनाव और आम आदमी की जिजीविषा के साथ जोड़ दिया गया। आदि काल से अब तक संवेदना के स्तर पर कविता आम आदमी और सामाजिक सरोकार की रचनात्मक विरासत रही है। उसे वाद-विवाद आत्मराग-विराग और पक्षधर चिन्तन की बैसाखियों पर नहीं चलाया जा सकता। कविता सदा से मुक्त रही है। स्वच्छन्द, आत्मपरक, समाजपरक।
हमें आज के सामाजिक, राजनैतिक, वैचारिक केऑस के बीच कविता को कविता के रूप में उसकी सर्जनात्मकता की विशिष्टता को नए सिरे से समझना होगा। कविता को सिर्फ कविता के रूप में स्वीकारना होगा।
- स्वदेश भारती
हमें आज के सामाजिक, राजनैतिक, वैचारिक केऑस के बीच कविता को कविता के रूप में उसकी सर्जनात्मकता की विशिष्टता को नए सिरे से समझना होगा। कविता को सिर्फ कविता के रूप में स्वीकारना होगा।
- स्वदेश भारती
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