राजधर्म जब जब खंडित होता है
जन-जन में क्षोभ फैलता है
इससे राजधर्म अपनी इयत्ता की मर्यादा खोता है
जब से सृष्टि बनी है, कभी पैदल, कभी घोड़ों पर सवार राजसत्ता के शिकारी, छल, दल, बल से
तरह तरह के शस्त्रों से सुसज्जित चक्रव्यूह रचते, रक्तपात लूटपात करते
साम, दाम, दंड, भेद आमजन को अपनी प्रजा, अपना दास बनाते
और आम जन युगों से दासता की पीड़ा झेलता रहा
अभावग्रस्ततता की खाली झोली लिए राजपथ पर
खाली पेट का ढोल बजाता, मांगों का नारा लगाता रहा
सत्ता की लाठियां, अश्रु गैस, जल बौछार, गोलियां, खाता रहा
जेलों की यातनाएं सहता रहा, सदियों से
सत्ता और आमजन का यही अटूट नाता रहा।
सत्ता सदैव आमजन को अलग-विलग करती
खडयंत्र के पुल बनाती
आर्थिक प्रगति, विकास के नाम पर छलती
अपनी कुर्सी मजबूती से पकड़े रहती
बिक्रांत-अक्रांत जन-आवाजों के बियावान में
सन्नाटे सर्जित करती, अपनी झोली भरती
राजधर्म का यही दुष्चक्र इतिहास बनाता,
अस्तित्व की लड़ाई लड़ती धनी, निर्धन के बीच खाई खंड़ो करती
अपने और अपनों के लिए
सत्ता की चाकबन्द सुरक्षा के लिए
नई-नई नीतियां गढ़ती
राजधर्म के नाम पर जन-भावनाओं को पददलित करती
समय के अनुसार
अपने स्वर बदलती
जब राजधर्म का क्रिएता सुख की नींद सोता है
तब आमजन दुखों की शर-शैया पर अंतरघात से
कराहता अपने शेष दिन गिनता और बेजार रोता है।
बैंगलोर
19 मई, 2013
मन मराल
सोच की नदी बहती है अबाध गतिक
शिखर-दर-शिखर, चट्टानों, घाटियों
शिलाओं, पठारों, वनों-उप वनों
सघन जंगलों, मरुथलों के बीच
अपना रास्ता बनाती
प्रवंचनाओं के तट बंध ढहाती
अिभव्यक्ति के दुकूलों को भिंगोती
अटूट दृढ़ विश्वास से भर
अभीष्ट की ओर बढ़ती
जैसे निश्चय से शपथित पथिक
मैं आत्मस्थ उसके प्रवाह
ऊपर आकाश की निभृत नीलिमा
नीचे धरती की शस्य इलम हरीतिमा
समय के द्वार पर बैठा
देख रहा चेतना का जल प्रवाल
सुखानुभूति से आनंदित
जैसे कमल-कोरों में
मधुरंजित मन-भरा ली...
बैंगलोर
23 मई, 2013
जीवन का प्रारब्ध
प्रारब्ध की ऊंचाईयों से गिरता झरझर
फेनोच्छ्वसित चाहत का गिरप्रपात रिर्झर
जो अपने आसपास के वृक्षों, लताओं,
नीली घाटियों को भिगोंता, रास्ता बनाता,
उच्छलगतिमय नदी-द्वार के आरपार
सहज बनता प्रवाह फेनोच्छ्वसित सुन्दर
प्रवाहित होता निरंतर
अस्तित्व नदी के ऊपर, अंदर बाहर
दो हृदयों के खम्भों पर निर्मित करता
संबंधों का सेतु
जिसका आधार बनता समभाव
समझौता, सहिष्णुता, आत्मीयता-स्नेह
और उद्देश्य होता जोड़ना, मोड़ना
जब प्रवंचना का विभाव
बन जाता आपद धर्म
चाहत का प्रपात भेदता, तोड़ता खंड-खंड करता
विश्वास की शिला-प्राण-मर्म
और फिर वही बनता विषाद प्राणी आबद्ध
जीवन का प्रार्बध....
बैंगलोर
25 मई, 2013
दर्द का अहसास
दर्द होता है-
जब विश्वास के सेतु ढहते हैं
प्रवंचना के कुठाराघात से
दर्द होता है
जब सम्बन्धों के विषाक्त-अदृश्य, अरूप
अशोभनीय, आत्मघाती-विनाशी पर्दा
उठता है, प्रवंचना की छद्म-अहंकार भरी
लोभ-लोभी-निजता की अंधेरी रात से
विषाद भरे प्रभात से
दर्द होता है -
जब आशा, विश्वास, स्नेह और अगाध
असीम प्यार से निर्मित
आत्मीयता का सेतु ढहताहै
जब रिश्तों के अप्रासंगिक अनुपाद के हृदय रिसता है
दर्द घिरता है-
जब वेदना का मौन अपारदर्शी कुहासा बन
मन के आरपार छा जाता है
जब कोई अपना अटूट प्रेम बंधन की
डोर तोड़ता है
अपने पथ को गन्तव्य से मोड़ता है
कोई जब अपना आपा खोता है
उसे अकल्पित, आकस्मिक, अस्वाभाविक
असामयिक चोट से आहत
प्यार भरे हृदय में विश्वास का आडम्बर्ग
तिल तिल कर पिघलता है
दर्द अंतर में पलता है।
बैंगलोर
27 मई, 2013
जन-जन में क्षोभ फैलता है
इससे राजधर्म अपनी इयत्ता की मर्यादा खोता है
जब से सृष्टि बनी है, कभी पैदल, कभी घोड़ों पर सवार राजसत्ता के शिकारी, छल, दल, बल से
तरह तरह के शस्त्रों से सुसज्जित चक्रव्यूह रचते, रक्तपात लूटपात करते
साम, दाम, दंड, भेद आमजन को अपनी प्रजा, अपना दास बनाते
और आम जन युगों से दासता की पीड़ा झेलता रहा
अभावग्रस्ततता की खाली झोली लिए राजपथ पर
खाली पेट का ढोल बजाता, मांगों का नारा लगाता रहा
सत्ता की लाठियां, अश्रु गैस, जल बौछार, गोलियां, खाता रहा
जेलों की यातनाएं सहता रहा, सदियों से
सत्ता और आमजन का यही अटूट नाता रहा।
सत्ता सदैव आमजन को अलग-विलग करती
खडयंत्र के पुल बनाती
आर्थिक प्रगति, विकास के नाम पर छलती
अपनी कुर्सी मजबूती से पकड़े रहती
बिक्रांत-अक्रांत जन-आवाजों के बियावान में
सन्नाटे सर्जित करती, अपनी झोली भरती
राजधर्म का यही दुष्चक्र इतिहास बनाता,
अस्तित्व की लड़ाई लड़ती धनी, निर्धन के बीच खाई खंड़ो करती
अपने और अपनों के लिए
सत्ता की चाकबन्द सुरक्षा के लिए
नई-नई नीतियां गढ़ती
राजधर्म के नाम पर जन-भावनाओं को पददलित करती
समय के अनुसार
अपने स्वर बदलती
जब राजधर्म का क्रिएता सुख की नींद सोता है
तब आमजन दुखों की शर-शैया पर अंतरघात से
कराहता अपने शेष दिन गिनता और बेजार रोता है।
बैंगलोर
19 मई, 2013
मन मराल
सोच की नदी बहती है अबाध गतिक
शिखर-दर-शिखर, चट्टानों, घाटियों
शिलाओं, पठारों, वनों-उप वनों
सघन जंगलों, मरुथलों के बीच
अपना रास्ता बनाती
प्रवंचनाओं के तट बंध ढहाती
अिभव्यक्ति के दुकूलों को भिंगोती
अटूट दृढ़ विश्वास से भर
अभीष्ट की ओर बढ़ती
जैसे निश्चय से शपथित पथिक
मैं आत्मस्थ उसके प्रवाह
ऊपर आकाश की निभृत नीलिमा
नीचे धरती की शस्य इलम हरीतिमा
समय के द्वार पर बैठा
देख रहा चेतना का जल प्रवाल
सुखानुभूति से आनंदित
जैसे कमल-कोरों में
मधुरंजित मन-भरा ली...
बैंगलोर
23 मई, 2013
जीवन का प्रारब्ध
प्रारब्ध की ऊंचाईयों से गिरता झरझर
फेनोच्छ्वसित चाहत का गिरप्रपात रिर्झर
जो अपने आसपास के वृक्षों, लताओं,
नीली घाटियों को भिगोंता, रास्ता बनाता,
उच्छलगतिमय नदी-द्वार के आरपार
सहज बनता प्रवाह फेनोच्छ्वसित सुन्दर
प्रवाहित होता निरंतर
अस्तित्व नदी के ऊपर, अंदर बाहर
दो हृदयों के खम्भों पर निर्मित करता
संबंधों का सेतु
जिसका आधार बनता समभाव
समझौता, सहिष्णुता, आत्मीयता-स्नेह
और उद्देश्य होता जोड़ना, मोड़ना
जब प्रवंचना का विभाव
बन जाता आपद धर्म
चाहत का प्रपात भेदता, तोड़ता खंड-खंड करता
विश्वास की शिला-प्राण-मर्म
और फिर वही बनता विषाद प्राणी आबद्ध
जीवन का प्रार्बध....
बैंगलोर
25 मई, 2013
दर्द का अहसास
दर्द होता है-
जब विश्वास के सेतु ढहते हैं
प्रवंचना के कुठाराघात से
दर्द होता है
जब सम्बन्धों के विषाक्त-अदृश्य, अरूप
अशोभनीय, आत्मघाती-विनाशी पर्दा
उठता है, प्रवंचना की छद्म-अहंकार भरी
लोभ-लोभी-निजता की अंधेरी रात से
विषाद भरे प्रभात से
दर्द होता है -
जब आशा, विश्वास, स्नेह और अगाध
असीम प्यार से निर्मित
आत्मीयता का सेतु ढहताहै
जब रिश्तों के अप्रासंगिक अनुपाद के हृदय रिसता है
दर्द घिरता है-
जब वेदना का मौन अपारदर्शी कुहासा बन
मन के आरपार छा जाता है
जब कोई अपना अटूट प्रेम बंधन की
डोर तोड़ता है
अपने पथ को गन्तव्य से मोड़ता है
कोई जब अपना आपा खोता है
उसे अकल्पित, आकस्मिक, अस्वाभाविक
असामयिक चोट से आहत
प्यार भरे हृदय में विश्वास का आडम्बर्ग
तिल तिल कर पिघलता है
दर्द अंतर में पलता है।
बैंगलोर
27 मई, 2013
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