वेदना के क्षितिज में
जब भी समय का सूर्य खिलता
चेतना का द्वार खुलता
प्रीति-आइसवर्ग बनता
चाह-आतुर मन पिघलता
हिरण्य गर्भा धरा का सौन्दर्य ढलता
अनुपम मनोहर रूप का संसार पलता
अंकुरित होता सदा ही प्यार जिसमें
बांध लेते स्नेह-बंधन हृदय को
फिर उसी से नियति का आधार बनता
उसी से ही प्रेरणा का द्वारा खुलता
हर सुखों का वृक्ष फलता
पास रहकर भी समय से दूर रह जाते
सदा संप्रीत बंधन से अलग है दर्द की पीड़ा
वही जो सालती अंतर प्रवंचित तमस जीवन भर
मौन का घिरता कुहाशा
टूटते संबंध की पतवार थामे
मन-तरी को समय के मजधार में
उत्ताल लहरों से बचाते क्या कभी हम
प्राण-तट तक पहुंच पाते पंथ हारा
डोलती डगमग तरी पतवार टूटी
अन्ततः दुख-मौन का अंधियार घिरता
वेदना के क्षितिज में ही प्यार खिलता....
झाऊ का पुरवा, प्रतापगढ़, (उ.प्र.)
30 मार्च, 2013
संभावना के क्षितिज
संभावना के क्षितिज में
उड़ते आकांक्षा-खग दूर-दूर तक
उनके समानान्तर ही मानव
बढ़ाते आहिस्ता-आहिस्ता अथवा तेजगति से कदम
कर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास, आत्मबोध से
जीवन होता सुखान्तक अथवा दुखान्तक
संभावनाओं के जंगल में भटकता दूर तक
हम सभी छल, मोह, माया, लोभ, लिप्सा
विविध-कर्म-अकर्म में हो लिप्त
जीवन भर
भोगते प्रारब्ध अपने
कर्म-फल को झेलते
अन्ततः मृत्यु -भय से जब निकलती चीख
मर्मान्तक
उस समय भी चल रहे होते
प्रणय मन दूर तक।
झाऊ का पुरवा, प्रतापगढ़, (उ.प्र.)
1 मई, 2013
जब भी समय का सूर्य खिलता
चेतना का द्वार खुलता
प्रीति-आइसवर्ग बनता
चाह-आतुर मन पिघलता
हिरण्य गर्भा धरा का सौन्दर्य ढलता
अनुपम मनोहर रूप का संसार पलता
अंकुरित होता सदा ही प्यार जिसमें
बांध लेते स्नेह-बंधन हृदय को
फिर उसी से नियति का आधार बनता
उसी से ही प्रेरणा का द्वारा खुलता
हर सुखों का वृक्ष फलता
पास रहकर भी समय से दूर रह जाते
सदा संप्रीत बंधन से अलग है दर्द की पीड़ा
वही जो सालती अंतर प्रवंचित तमस जीवन भर
मौन का घिरता कुहाशा
टूटते संबंध की पतवार थामे
मन-तरी को समय के मजधार में
उत्ताल लहरों से बचाते क्या कभी हम
प्राण-तट तक पहुंच पाते पंथ हारा
डोलती डगमग तरी पतवार टूटी
अन्ततः दुख-मौन का अंधियार घिरता
वेदना के क्षितिज में ही प्यार खिलता....
झाऊ का पुरवा, प्रतापगढ़, (उ.प्र.)
30 मार्च, 2013
संभावना के क्षितिज
संभावना के क्षितिज में
उड़ते आकांक्षा-खग दूर-दूर तक
उनके समानान्तर ही मानव
बढ़ाते आहिस्ता-आहिस्ता अथवा तेजगति से कदम
कर्म के प्रति श्रद्धा, विश्वास, आत्मबोध से
जीवन होता सुखान्तक अथवा दुखान्तक
संभावनाओं के जंगल में भटकता दूर तक
हम सभी छल, मोह, माया, लोभ, लिप्सा
विविध-कर्म-अकर्म में हो लिप्त
जीवन भर
भोगते प्रारब्ध अपने
कर्म-फल को झेलते
अन्ततः मृत्यु -भय से जब निकलती चीख
मर्मान्तक
उस समय भी चल रहे होते
प्रणय मन दूर तक।
झाऊ का पुरवा, प्रतापगढ़, (उ.प्र.)
1 मई, 2013
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