Thursday 27 December 2012

पृथ्वी का पहला व्यक्ति

मैने जब पृथ्वी पर पहला पग रखा
सौन्दर्याचारी बना- मां का मुंह निहार
फिर बना लोभाचारी-अच्छे स्वादिष्ट भोजन,
सुस्वादिक वह सब कुछ जिससे पेट भरता हो
तभी प्रेम के अंकुर उगने लगे
मैंने जब धरती पर प्रथम पग रखा
बनाये कितने सारे मित्र, सखा
मां के प्रथम चुम्बन से मेरे भीतर पैदा हुई
नई शक्ति और वही मेरे अस्तित्व का औदार्य बना
खट्टा-मीठा, सुन्दर-असुन्दर,
पांच तत्वों के साथ मेरा संबंध सधा
प्रथम बार चलने पर किलकारियों के बीच
मेरे भीतर एक सपना जागा-प्रकृतिजन्य नवान्न मांगा
जिससे जीवन पर्यन्त बंधा रहा
भले ही स्वप्नारोही रहा अथवा स्वप्न विपाशाकूल
अनगिन फलों को चखा..
मेरी प्रथम मां जन्मदात्री जननी थी
दूसरी मां यह हरित भरित पृथ्वी
जिस पर चलकर मैं उसके ईर्द-गिर्द घूम आया
कितने योजना-दर-योजन
कितने प्रकृति की सुन्दरता और मधुरिमा को चूम आया
अपने भीतर आनन्द-उल्लास का खालीपन भर लाया
बनाए मित्र, हिती, बन्धु, सखा एक से एक
जिनके साथ जीवन बिताया।
                   
                                              1 नवम्बर, 2012




भोर बेला का पाखी

भोर बेला का पाखी
उड़ता है नभ की दूरियां मापता
क्षितिजों में उन्मुक्त..

कौन जाने भला वह कहां जाएगा
पाखी की यात्रा का अन्तिम पड़ाव
नीड़-ग्राही नहीं होता
वह उसे निस्पृह भाव से त्याग देता है
जिस नीड़ को सयत्न निर्मित किया था
जिसमें अपने शावको के साथ
ममत्व का खेल खेला था
वर्षा, ताप, तूफान को झेला था
किन्तु सदा ही अपने पंखों से
नापता रहा आकाश की अनन्तता
खोजता रहा एक वृक्ष की डाल
जिसे समझता रहा नीड़ के उपयुक्त...

भोर बेला का पाखी
अस्तित्व की सुरक्षा के लिए
शावको का पेट भरने के लिए
कितनी तरह के ठिकानों पर दाना चुनता है
और चोंच में भरकर रोटी दाना
नीड़ की ओर चल देता है
जहां प्रतीक्षा करते होते
उसके नन्हे नन्हे प्रिय शावक
कुछ जागते कुछ शुषुप्त..

भोर बेला का पाखी
आनन्द भरे पंखों से उड़ता
अपने कर्म पर जीता
संबंधों से सदा रहता रीता
किन्तु खोजता सहचर उपयुक्त....

                                             2 नवम्बर, 2012






सत्ताधारी

वे सब मिथ्यावाद के खेल में माहिर थे धर्मकांटे पर चढ़कर
अपने को झूठ की तराजू का वाट बना गए
और उनके पीछे की पीढ़ी आज के उथल पुथल में
धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, लोभ-क्षोभ
पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे की पहचान करने में
अपने को असमर्थ पा रही है
सभी वेद शास्त्र, उपनिषद, पुराण, श्रुतियां
अर्थहीन हो गई है समय के वाचाल-तथ्यों के बीच
कितने सारे उपदेशक, नेता, ज्ञानी
कर रहे हैं व्याखाएं वर्तमान-युग की अव्यवस्थावाद की
कष्टप्रद व्यथाओं के बीच
आदमी का अस्तित्व-विघटन
आधुनिकता से पलायन करता
वोटखोर नेता जन-कल्याण की योजनाएं बनाते हैं
एक दूसरे से आगे बढ़कर बड़े सत्ताधारी होने का दम भरते हैं
अब महादेव, राम, कृष्ण
हनुमान, माता-देवी भी असहाय हैं
आज का सत्ताधारी
महाबली, फरेबी, झूठा, अनाचारी
सत्ताधारी देवा तथा आमजन
हाथ में हरे छूरे लिए घूम रहे हैं
आमजन असहाय हैं
आज के सत्ताधारी, देवी-देवताओं से अधिक
पूज्यनीय तथा भीमकाय है।

                                                                   3  नवम्बर, 2012







मायाजाल

रात की निविड़ नीरवता बन्द आंखों में
सपनों के मायाजाल बुनती है
स्मृतियोंको इतिहास कोश है एक एक को चुनती है
कितना कुछ घट जाता है अंधकार में
और हम सबेरा होने की प्रतीक्षा करते हैं

रात का अंधकार कभी निस्तव्ध मौन रहता
कभी अट्ठाहास स्वर में पागल की तरह हंसता
कभी माताल होकर खेत, खलिहान में
अथवा फुटपाथ पर अथवा बार बनिताओं के साथ
बार, नाच घर, क्लबों, पबों, होटलों में
मचाता हुड़दंग
छा जाता उसके अन्दर बाहर
जीवन आनन्द का मांसल-आनन्द
बहशीपन झलकता है अंग-प्रत्यंग में
रात का अंधकार रोमानी क्षण दे जाता
और प्रकाश उसे नई ज्योति से भर जाता

रात एक असत्य, मिथ्या जारिणी की तरह
अपने माया-लोक का सृजन करती है
और सबेरा उसे मिटा डालता है
रात और दिन का नाता अटूट है
हम जिस तह सबेरे की प्रतीक्षा करते हैं
उसी तरह शाम आने की प्रतीक्षा में लालायित रहते।

                                                                               5  नवम्बर, 2012








नवान्द का विपर्यय

सब कुछ है मेरे पास, मेरे भीतर बाहर
मन, हृदय, बुद्धि से बढ़कर कुछ भी नहीं
किन्तु मैंने उसे विखराया है अराजकता खेत में
किसान की तरह बीज बोया है
फिर पाया नहीं वह अभीष्ट
जिसे खोज रहा था सागर-तट की रेत में
सुनता रहा लहरों का आहत-क्रंदन
जो बार-बार तट से टकराती है
और करती प्रार्थना अगाध, अगोचर से
कि शांति दे सागर के उच्छ्वल, अशांत
सदा उद्देलित मन को
जिसे अनन्तता और विशालता की
एकरुपता से गम्भीर अगम्य
सौन्दर्यवान बनाया
वह सब समय के गहरे में विलीन हो जाएगा
सृष्टि की नवपरिवर्तन चर्किका
तीव्रगति से चलेगी, अंतस् की सड़क पर
नवान्द-रस-उच्छ्वास से भर जाएगा।




                                                              6  नवम्बर, 2012









समय-पंथी

जो गाता था आनन्द विभोर तरह-तरह के गीत
अपने गीतों से बनाया करता था
दिन प्रतिदिन नए-नए मीत
जो रुपहली नदी धार के पार चले गये
अन्तिम गीत की अन्तिम पंक्तियां
आज भी गूंजती है कानों में -
वीणा के तार इतना कसो मत कि टूट जाए
और इतना ढीला भी मत करो कि बजे ही नहीं
खेतों-खलिहानो में, फुटपाथों, अट्ठालिकाओं में
बार, कहवा घर, नाच घरों में
ऐसा फैशन परस्त प्यार किस काम का जो सजे नहीं
उनके गीतों में जीवन का फिलसफा था
और नव राग-रंग था, उमंग थी
परन्तु अब तो वह समय-प्रवाह में बह कर
अनन्त में चला गया है।
रातें होगीं, सुबहें सप्तवर्णी किरणों की सौगात लेकर
धरती को प्रकाशमय बनाएगी
जन-जन अपनी प्रतिदिन की दिनचर्या में लग जाएगा
कहीं आनन्दोल्लास, कहीं दुखद त्रासद क्षण विषाद
समय आदमी की भाग्यलेखा लिखता है
नए-नए अध्याय जोड़ता है
जीवन के नवगन्तव्य-पथ की ओर मोड़ता है।


                                                                         7 नवम्बर, 2012








सत्य - असत्य

तिल-तिल कर जीवन के क्षण बीत जाते
किन्तु हम अपने भीतर के सत्य को उजागर नहीं कर पाते
आधि दैविक, आध्यात्मिक और आधि भौतिक शक्तियों के रूप में
तथा उनके अधिष्ठाता मित्र वरुण की कृतज्ञता ज्ञापन नहीं कर पाते
और आत्मलोभ, अहंकार, प्रवंचना के जंगल में
भटकते रहते हैं आलो-छाया के बीच
उम्र के अंतिम पड़ाव तक ले जाता
मनुष्य को सत्य असत्य के पथ पर
बहुत सारे अन्तर्ज्ञान के तथ्यों से खींच।

                                                                         8 नवम्बर, 2012








रिक्तता

सब कुछ चूक जाता
रिक्त हो जाता
प्रकृति का प्रत्येक प्राणी
मौसम-परिवर्तन
मन के भीतर चलते रहते युद्ध
कितने सारे सुखी देवों
और असुखी असुरों के हो जाते उन्नत-मार्ग अवरुद्ध
युगों का यही मानव-आचरण
जितना भरता कर्म-घट
उतना भरता कर्म-घट
उतना रिक्त हो जाता
अन्ततः कोई भी कुछ नहीं पाता...

सब कुछ चुक जाता
रिक्तता की आंच सबको सताती
जिनके पास सारे सुख के सरंजाम हैं
उन्हें भी नींद नहीं आती
बस धन-लिप्सा का मायाबी अंधकार
घेरे रहता है उम्र भर जीवन के आर-पार
आलोक भी उनकी छलना का होता शिकार
आत्म-लोभ से जोड़ लेता नाता....

सब कुछ चुक जाता
हमारे अहम और ऐश्वर्य की महत्ता
नहीं रह पाती धन और अधिकार की सत्ता
हमारा अभिमान कितना कुछ अनर्गल ढाता
हमारे पास जो भी जितना होता
वह सब चुक जाता

                                                            9  नवम्बर, 2012







निरन्तर चलने की कोशिश

मैं उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलता रहा
अभावों में पलता रहा
फिर भी इच्छाओं की नाव को
बुद्धि और मन की पतवारों से खेता रहा
अभीष्ट तट की ओर जाने के लिए
भीतर नित नव नूतन भाव का उद्वेग मचलता रहा...

याद आते हैं वे लमहे
जब हम नदी तट पर बैठे
रेत से मुट्ठियां भर-भर खाली करते रहते
पांव के अंगूठे से
तरह तरह के बालुका-चित्र बनाते
हृदय में नदी प्रवाह का आनन्द भरते
उसी समय से हृदय में
नए -नए रुपों में ढलता रहा...

कितना कुछ बीत गया समय
कितना पानी मनकी गागर से रीत गया
हर स्थिति में, हर दशा-दिशा में
समय हमें जीत गया
अतीत संघर्षों में बीता
और वर्तमान हर मोड़ पर छलता रहा
फिर भी आदमी लस्त-पस्त अभावग्रस्त चलता रहा।

                                                                     10  नवम्बर, 2012







मन का अन्तरीप

आस्था का त्योहार है दीपोत्सव
जो आता है आनन्द, शुभ, धन-धान्य भरा संदेश लेकर
सज जाता है घर -आंगन-हृदय
छा चाता है उल्लास जन-जन में नव भाव-विभव

संप्रीति का त्योहार है दीपावली
नए शुभ-साध्य-भरा स्तवन, पूजन स्वर
चारों दिशाओं को मुखरित करते
खाली हृदयों को नव उमंग से भरते
प्रार्थना के वचन गूंज उठते
आनन्द भरा हो जग जीवन साज वैभव

घर बाहर सजते प्रदीप
दूर के रिश्ते आते समीप
खान-पान सुखमय नव आनन्द सौरभ से
महक उठता मन का कोना कोना
छा जाता नववसन्त मन-जीवन में जो बसाया है अन्तरीप
किन्तु टूट जाता अचानक स्मृतियों का खिलौना

                                                                                    12  नवम्बर, 2012





दीपावली

दीपावली का प्रदीप
देता है हमें नव संदेश
कि हम रहे एक प्राम, मां माटी के संतान
प्रेम और पारस्परिक विश्वास के धागे से बंध
मानव मूल्यों से सधे.....

दीपावली का प्रदीप यह भी सिखाता है
कि हमें प्रकाश देने के लिए
वर्तिका की तरह जलना है
अपने संस्कारों में, जन प्रतिश्रृतियों में पलना है
आत्मडोर से बंधे......

दीपावली का प्रदीप यह भी सिखाता है
कि हमें प्रकाश देने के लिए
वर्तिका की तरह जलना है
अपने संस्कारों में, जन प्रतिश्रतियों में पलना है
आत्मडोर से बंधे....

दीपावली का प्रदीप
स्नेह और संपीति का उजाला देता
धरती पर छाए अंधकार को दूर करता
हृदय को आलोक-प्रभा से भरता
किन्तु पहचान नहीं पाते
प्रकाश की परिभाषा धरती के बंदे....

                                                                                        13  नवम्बर, 2012







समय-वंदन

सबको नमन
नवसंवत्सर का अभिनंदन
आज के असमय का मिट जाए आहत-क्रन्दन
अज्ञान, अपसंकृति, अन्तर-कलह का हो भंजन
सबको नमन
स्वागत नवसंवतसर का नव आगमन
आने वाले समय का वन्दन

                                                                           14  नवम्बर, 2012      









भग्न-स्वप्न

जिस सपने को अपने कैशोर्य काल में संजोया था
जब टूट गया
ऐसा अहसास हुआ
समय ही मुझसे रुठ गया

दुःख-सुख की संकरी, ऊबड़ खाबड़ पगडंडी पर चलते हुए
देखाहै आलो-छाया की आंख मिचौनी
भाव-सद्भाव-विभाव-अभाव के बीच
देखा है लोगों की आत्मलिप्सा घिनौनी

प्रत्येक सुबह नए-नए सपनों के अक्षर-बीज को
मन की माटी में उगाता हूं
और भावों के जल से सींचता हूं
फूल फल की आशा नहीं करता
क्योंकि संवेदना का भाव-सेतू
जो नई प्रतिज्ञाओं के पूरा होने से पहले ही टूट गया
और करता रहा आत्मदंश की आंख मिचौनी।

                                                                             15  नवम्बर, 2012      









2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (28-12-2012) के चर्चा मंच-११०७ (आओ नूतन वर्ष मनायें) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

    ReplyDelete
  2. सभी रचनाएँ सुंदर |
    मेरी नई पोस्ट:-ख्वाब क्या अपनाओगे ?

    ReplyDelete