मेरे गन्तव्य-पथ में मिले असंख्य लोग
विद्या और अविद्या-धारी
विविध स्वांग-धारी
विवेक और अविवेक चारी, प्रमादी, आलसी,
और ऐसे भी ज्ञानी, महात्मा जो साधते योग
जिनके लिए चाहिए जीवन का आनन्द झेग-साधन
और उन्हें भी
जो अपनी हविष के लिए
सद् गुणों की हत्या करते
आधा जीते, आधा मरते चाहते
धन, ऐश्वर्य, नारीतन का भोग
मेरे रास्ते में मिले ऐसे असंख्य लोग।
12 सितम्बर, 2012
अपरिचित-स्नेह-भाव
भयानक तूफान में
बूढ़ा वृक्ष धरासायी हो जाता है
आह! मैं भी समय के आघात से
पीठ के बल गिरा था
और क्षण भऱ में गया संज्ञाशून्य
असमर्थ, अकेला, निरुपाय था किन्तु
अजाने लोगों ने सहारा दिया
मुझमें होश आया तो देखा उन अजाने चेहरों पर
करुणा और ममत्व-भाव
सुन रहा था अस्पताल, डाक्टर जैसे शब्द
भयानक यंत्रणा और वेदना के बीच
अपरिचितों ने किया मेरा बचाव
13 सितम्बर, 2012
शब्द-साज
शब्दों को मैंने सजाया संवारा बनाया सुन्दर अनूप
इसके लिए प्रकृति से मांगा
ऋतु-परिवर्तन के सौन्दर्य-मनोरंजक-रूप
बेहतर से बेहतर शब्द-परिधान बनाए
और भावों को अन्तरमन से सजाए
विपरीत परिस्थितयों में उन्हें बचाए...
शब्दों की सीढ़ियां चढ़ते हुए
अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहा
आत्मीयता के गहरे आत्मबोध से
अन्तस् का आइसवर्ग पिघलता रहा
काले समय की असंभाव्य छाया से
बचते-बचाते नव संवेदना के सेतु बनाए....
पग-पग पर मैं शब्दों का हाथ थामे रहा
उसके लिए अनगिनत उतार-चढ़ाव सहा
समय-असमय के साथ सजे हुए
शब्दों को तोड़ा मरोड़ा
कुछ नए-नए संदर्भ जोड़ा
प्रत्येक सार्थक बोध से
शब्दों को हीरे की तरह चमकाए....।
14 सितम्बर, 2012
मन-अंतराल की खाली गागर
मैं अपने अंतराल-सागर में
दुःख-सुख की असंख्य छोटी-बड़ी मछलियों
लघु, विशाल जीव-जन्तुओं की क्रीड़ा-कला देखता हूं
एकाकी, तटस्थ प्रकृति की विविध लीलाएं देखकर
मैं मौनबद्ध हूं। मेरे सामने क्षितिज-छुआ नीला
लहराता समुद्र है। लम्बा रेत-तट है
कुछ विदेशी सैलानी बीकनी-में
कुछ सागर तट पर लेटे, कुछ जल क्रीड़ाएं करते
मेरी आंखों में विस्तृत नीला आकाश तना है जो
दिन के अवसान पर पश्चिम की सांध्य लीला समाप्त होने पर
रात के अंधकार में घिर जाता है
जीवन के सुख-दुख बंट जाते हैं
किसी की झोली समृद्धि से भर जाती है
और किसी की दैन्यता से खाली रह जाती है
जन्म ने के बाद आदमी
अपने सुखों के लिए
तरह-तरह के धन्धों में लग जाता है
जीवन कितनी बार, कितनी तरह से, कितने कोणों पर
अपने अहंकार को ओढ़ता
प्रवंचना और मिथ्या-जाल में फंसता
कितनी सारी समस्याओं का रोना घर -घर में रहता
जब आदमी कर रहा होता प्रारब्ध-रस के अभाव का अहसास
मन की खाली गागर में।
15 सितम्बर, 2012
सुख-दुख की आंख मिचौनी
कभी-कभी सुख हो जाता है
सूम की तिजोरी में बन्द धन
जो बाहर निकल नहीं पाता
भले ही त्याग दे सम अपना तन-मन
सूम का लोभ-धन से होता गहरा नाता...
बहुत कोशिशों के बाद
यदि सुख उस तिजोरी से निकलता भी है
तो दुख का शाया उसके ऊपर मंडराता
और भयाक्रांत सुख
दुख में बदल जाता...
दुनिया में जो दिखते बाहर से सुखी
अंदर से होते दुखी
सुख-दुख की आंख मिचौनी में
समय हमें भटकाता...।
16 सितम्बर, 2012
विद्या और अविद्या-धारी
विविध स्वांग-धारी
विवेक और अविवेक चारी, प्रमादी, आलसी,
और ऐसे भी ज्ञानी, महात्मा जो साधते योग
जिनके लिए चाहिए जीवन का आनन्द झेग-साधन
और उन्हें भी
जो अपनी हविष के लिए
सद् गुणों की हत्या करते
आधा जीते, आधा मरते चाहते
धन, ऐश्वर्य, नारीतन का भोग
मेरे रास्ते में मिले ऐसे असंख्य लोग।
12 सितम्बर, 2012
अपरिचित-स्नेह-भाव
भयानक तूफान में
बूढ़ा वृक्ष धरासायी हो जाता है
आह! मैं भी समय के आघात से
पीठ के बल गिरा था
और क्षण भऱ में गया संज्ञाशून्य
असमर्थ, अकेला, निरुपाय था किन्तु
अजाने लोगों ने सहारा दिया
मुझमें होश आया तो देखा उन अजाने चेहरों पर
करुणा और ममत्व-भाव
सुन रहा था अस्पताल, डाक्टर जैसे शब्द
भयानक यंत्रणा और वेदना के बीच
अपरिचितों ने किया मेरा बचाव
13 सितम्बर, 2012
शब्द-साज
शब्दों को मैंने सजाया संवारा बनाया सुन्दर अनूप
इसके लिए प्रकृति से मांगा
ऋतु-परिवर्तन के सौन्दर्य-मनोरंजक-रूप
बेहतर से बेहतर शब्द-परिधान बनाए
और भावों को अन्तरमन से सजाए
विपरीत परिस्थितयों में उन्हें बचाए...
शब्दों की सीढ़ियां चढ़ते हुए
अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहा
आत्मीयता के गहरे आत्मबोध से
अन्तस् का आइसवर्ग पिघलता रहा
काले समय की असंभाव्य छाया से
बचते-बचाते नव संवेदना के सेतु बनाए....
पग-पग पर मैं शब्दों का हाथ थामे रहा
उसके लिए अनगिनत उतार-चढ़ाव सहा
समय-असमय के साथ सजे हुए
शब्दों को तोड़ा मरोड़ा
कुछ नए-नए संदर्भ जोड़ा
प्रत्येक सार्थक बोध से
शब्दों को हीरे की तरह चमकाए....।
14 सितम्बर, 2012
मन-अंतराल की खाली गागर
मैं अपने अंतराल-सागर में
दुःख-सुख की असंख्य छोटी-बड़ी मछलियों
लघु, विशाल जीव-जन्तुओं की क्रीड़ा-कला देखता हूं
एकाकी, तटस्थ प्रकृति की विविध लीलाएं देखकर
मैं मौनबद्ध हूं। मेरे सामने क्षितिज-छुआ नीला
लहराता समुद्र है। लम्बा रेत-तट है
कुछ विदेशी सैलानी बीकनी-में
कुछ सागर तट पर लेटे, कुछ जल क्रीड़ाएं करते
मेरी आंखों में विस्तृत नीला आकाश तना है जो
दिन के अवसान पर पश्चिम की सांध्य लीला समाप्त होने पर
रात के अंधकार में घिर जाता है
जीवन के सुख-दुख बंट जाते हैं
किसी की झोली समृद्धि से भर जाती है
और किसी की दैन्यता से खाली रह जाती है
जन्म ने के बाद आदमी
अपने सुखों के लिए
तरह-तरह के धन्धों में लग जाता है
जीवन कितनी बार, कितनी तरह से, कितने कोणों पर
अपने अहंकार को ओढ़ता
प्रवंचना और मिथ्या-जाल में फंसता
कितनी सारी समस्याओं का रोना घर -घर में रहता
जब आदमी कर रहा होता प्रारब्ध-रस के अभाव का अहसास
मन की खाली गागर में।
15 सितम्बर, 2012
सुख-दुख की आंख मिचौनी
कभी-कभी सुख हो जाता है
सूम की तिजोरी में बन्द धन
जो बाहर निकल नहीं पाता
भले ही त्याग दे सम अपना तन-मन
सूम का लोभ-धन से होता गहरा नाता...
बहुत कोशिशों के बाद
यदि सुख उस तिजोरी से निकलता भी है
तो दुख का शाया उसके ऊपर मंडराता
और भयाक्रांत सुख
दुख में बदल जाता...
दुनिया में जो दिखते बाहर से सुखी
अंदर से होते दुखी
सुख-दुख की आंख मिचौनी में
समय हमें भटकाता...।
16 सितम्बर, 2012
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