हम अपने संबंधों को तौलते हैं
सोच के वाट और लोभ की तुला पर
संबंधों को औने पौने दाम पर
क्रय-विक्रय करते हैं। यदा कदा
सुखी होते हैं आहें भी भरते हैं
कैरम की गोटी बनकर अथवा
कभी ताश का तुरुप अदला बदली कर
और कभी शतरंग के हाथी, घोड़े, रानी, राजा बन
पियादा बन मात देते हैं अपनों को
अपने लिए तरह-तरह के सपने गढ़ते हैं
कुछ शब्द भीतर रखकर, कुछ अर्थ बाहर निकालते हैं
मन में कितने सारे भेद-विभेद पालते हैं
कुछ बासी, कुछ ताजा, कुछ बेमन, कुछ अनबन
भाव-अभाव अपने-पराये का अंकगणित
कुछ इस तरह हल करते हैं
कि जोड़ घटाव, गुणान-भाग से सत्ता
आत्म-सत्ता का विकीरित सत्य भोगते हैं
संबंधों के मुखौष को तरह तरह से उकेरते हैं
तरह-तरह से बाजीगर बनने की इच्छा संबंध
जोड़ नहीं पाती, तोड़ती है और आहत मन-
के घायल स्वप्न अदहन-जल की तरह
चिन्ता की भट्टी में खौलते हैं
हम तरह-तरह स्वार्थ की तुला पर
संबंधों को तौलते हैं
2 जुलाई, 2012
अग्नि-पथ पर चलते हुए...
मन-जंगल में पागल आग, मात्ताल हवा के साथ
स्वतः बनती भीषण प्रकोप-ज्वाला
जलाती सुन्दर सौन्दर्यवान सुशोभित हरियाली
हवा के हाथों में हाथ डालकर तांडव करती
अमरीका के जंगलों, हिमाचल की घाटियों वनों,
फलों के बागानों, दक्षिण अफ्रीका, साईबेरिया,
आस्ट्रेलिया की सघन वृक्षावलियों, फूलों, फलों को क्षण भर में राख बना देती
आग क्रांति की ज्योति जलाती
आग हमारी चेतना को पौरुष देती
जीवन के विविध सुख-सरंजाम देती
और चिता बनकर
हमारी इयत्ता को मुट्ठी भर राख बना देती
जन ऋषि कहता अग्निदेवो भव
और देवों को प्रसन्न करने के लिए
हवन-यज्ञ करता है
सर्व प्रथमआग की पूजा करता, स्तवन करता
ओम् अग्निदेवो नमः वहां अग्निदेवता
अपने देवत्व की मर्यादा का सम्मान करते
किन्तु मनुष्य की पाप-लीला को
अपनी क्रोध-ज्वाला से कभी भी शमन नहीं कर पाते
हम अग्नि-पथ पर चलते हुए
अपने गन्तव्य तक चलने का जीवनपर्यंत
यत्न करते, नए जीवन के साथ बदलते
अग्निलीला को आत्मसात करते
3 जुलाई, 2012
खालीपन
हर वक्त लगता है
जैसे कुछ ऐसा है कि खो गया है
अलग हो गया है मुझसे
अपने पथ पर चलते हुए
मेरा समय अन्तराल में सो गया है
लगने लगता है सब कुछ व्यर्थ
सबेरे उठकर नास्ता करना, आफिस जाना,
दोपहर में लंच और रात में रंगत के बीच डीनर लेना
प्यार, मोहब्बत के बनावटी बोल की खुशियां देना
सभी खो जाते सच्चाई के बीच अर्थ
उस विनार्थ के मौन से उभरती है प्रतिध्वनि
जो अन्तर के तारों की झंकृत करती
हमारी निराशा का खाली घट भरती
औरत लगता है मै नए क्षणों में जी रहा हूं
नएपन का आत्मबोध
आत्म विस्तृत करता गत-विगत की धूप छाहीं
श्लथ-पथ का अवरोध
क्षण भर में अस्तित्व को उद्वेलित करता
नया दिशा सूचक
लगता है गुलाब की टटकी पंखुड़ियों को
व्यथा-व्यग्र रात का अंतर्द्वंद
चुपके से अनुकणों से धो गया है।
4 जुलाई, 2012
भवितव्य की आस
धीरे-धीरे पहुंच रहा हूं गन्तव्य के पास
इतने दिनों से मन के भीतर रची बसी स्वप्न-विचित्रा
नए परिवेश में
नए नए भेष में
अपनी ऊर्जा प्राप्त करेगी
खंड-खंड हुए जीवन को संपूर्णता का अहसास होगा
मन में होता है नव-उद्भास
धीरे-धीरे पहुंच जाऊंगा अभीष्ट के पास...
इस प्रक्रिया में कितने सारे युग-सत्य
कितने आत्म-सम्मान
जिजीविषा के सार्थक उपमान खो गए
और उन सारी विसंगतियों को
अपने घायल कंधे पर ढोता हुआ चल रहा
एकाकी, मौन
छोड़ता संघर्ष का दीर्घ निश्वास...
हां, पहुंच रहा हूं धीरे-धीरे गन्तव्य के पास
गुनता सृष्टि का इतिहास,
खोजता जीवन के विविध अर्थ
कि कैसे हो जाता सारा कुछ व्यर्थ, शून्य
किन्तु उस शून्यता का भी बड़ा अर्थ होता
और वही तो बनाता प्रारब्ध के विविध आयाम
अस्तित्व-सामर्थ्य के नव अभियान
खोना नहीं है तनिक भी जिजीविषा कशिश
नित्यप्रति नई दिशाएं खोजता ज्ञान-प्राण वान
छोड़े बिना भवितव्य की आस...
5 जुलाई, 2012
लक्ष्य
प्रतिदिन मछली की आंख पर लक्ष्य-संधान करता व्यर्थ
क्योंकि नहीं जानता उस लक्ष्य की इयत्ता
और कठीन साधना की महत्ता
बस खेलते रहते समय से विनार्थ
प्रतिदिन बनाते मन्सूबे
संजोते जीने के लिए विविध पदार्थ
गहन वन-वीथियों, नदियों, सागर-तट पर
भिन्न-भिन दूरियों में बंढ़ता
जीवन-यापन के सरंजामों की गठरी बांधता
कभी यह पथ, कभी वह पथ
श्लथ-पग चलता
एक मेले से दूररे, तीसरे, चौथे...क्रमागत मलों में
अपनी अभीप्सा को बेंचता
मछली की आंख पर सर संधान करने का यत्न करता....
नए प्रभात में
नए-नए दृश्य विन्दुओं के बीच
नए-नए पैमाने गढ़ता, विगाड़ता अथवा आत्मसात करता
सूने अन्तस् -कलश को चिन्ताग्रस्त दिनचर्या से भरता
सुखानुभूति के ताने बाने गढ़ता
समय के भीतर-बाहर
अपने समय-संदर्भों में पलता
जीवन की तितीक्षा-बंध खोलता, बांधता
मछली की आंख पर लक्ष्य साधने का सामर्जुथ जुटाता
6 जुलाई , 2012
जीने का अर्थ
सुख से जीने का अर्थ हैं
अपने को काटना, बांटना
सपनों और आकांक्षाओं के साथ
कई-कई तरह से
अस्मिता को खंडित विभीषिका को
विभिन्न दिशाओं में उछालना.....
जीने के कई अर्थ के साथ जुड़ना
अर्थ के लिए ही विभिन्न रास्तों पर चलते हुए मुड़ना
एक पांव एक पथ पर
दूसरा पांव दूसरे पथ पर
आत्मघाती, निष्ठुर, बासी, कलुषित दिनचर्चाओं की
असंतुलित तुला पर अपने को तौलना
तिलतिल कर अपने समय का विक्रय विनार्थ है
सुख से जीने का क्या यही भावार्थ है।
8 जुलाई , 2012
शब्द-साज
मैं कुम्हार की तरह
चिन्तन-चाक पर
नए-नए शब्द बनाता हू
फिर उन्हें
ज्ञान की आग में पकाता हूं
तरह-तरह के शब्द-शिल्प-पात्र, मोतियां
हाट-बाजार में बेंचता हूं
यह क्रय-विक्रय का क्रम
भीड़ भरे मेले में चलता रहता
स्वीकृति-अस्वीकृति के बीच
शब्द-ज्ञान-घट टूटने का दर्द
आहत मन के आर-पार
गहरे सन्नाटे में बदल जाता
अपने शब्द-ज्ञान-घट को सम्भाले
घूमता रहता सिवान से फुटपाथ तक
अस्तित्व के टूटने की चोट सहता
भिन्न-भिन्न संदर्भों में
भिन्न-भिन्न आत्म-गति-कथा अभिव्यक्ति करता
9 जुलाई , 2012
जीवन की असंपूर्णता
हम जीवन की संपूर्णता से दूर रह जाते
यद्यपि कि उसके लिए
कितनी तरह के कितने सारे कर्म करते जाते
चाहे-अन चाहे कर्म निभाते...
धन-सत्ता हो अथवा सामर्थ्य-सत्ता
प्राण संवेदना के विकष पर
चाहे जितने आकांक्षा-सर संघान करे
तोड़ नहीं पाते संबंधों की जड़ता
जोड़ नहीं पाते रिश्ते नाते...
कहीं न कहीं अन्तस के खालीपन को भरते
अनिष्ट को भी शिष्ट मानकर
आरोपित जीवन जीते
कभी खुशी, कभी गम का वैविध्य अपनाते
यूं ही अवश जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते जाते....
सुख कहां है?
आत्मदर्पण में लगे दाग साफ करते करते
उम्र बीत जाती
छल, दुराव के बीच
जीवन को तरह-तरह से सजाते
सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए ही
धरती पर हम बार-बार आते
फिर भी संपूर्ण नहीं हो पाते.........
10 जुलाई , 2012
सोच के वाट और लोभ की तुला पर
संबंधों को औने पौने दाम पर
क्रय-विक्रय करते हैं। यदा कदा
सुखी होते हैं आहें भी भरते हैं
कैरम की गोटी बनकर अथवा
कभी ताश का तुरुप अदला बदली कर
और कभी शतरंग के हाथी, घोड़े, रानी, राजा बन
पियादा बन मात देते हैं अपनों को
अपने लिए तरह-तरह के सपने गढ़ते हैं
कुछ शब्द भीतर रखकर, कुछ अर्थ बाहर निकालते हैं
मन में कितने सारे भेद-विभेद पालते हैं
कुछ बासी, कुछ ताजा, कुछ बेमन, कुछ अनबन
भाव-अभाव अपने-पराये का अंकगणित
कुछ इस तरह हल करते हैं
कि जोड़ घटाव, गुणान-भाग से सत्ता
आत्म-सत्ता का विकीरित सत्य भोगते हैं
संबंधों के मुखौष को तरह तरह से उकेरते हैं
तरह-तरह से बाजीगर बनने की इच्छा संबंध
जोड़ नहीं पाती, तोड़ती है और आहत मन-
के घायल स्वप्न अदहन-जल की तरह
चिन्ता की भट्टी में खौलते हैं
हम तरह-तरह स्वार्थ की तुला पर
संबंधों को तौलते हैं
2 जुलाई, 2012
अग्नि-पथ पर चलते हुए...
मन-जंगल में पागल आग, मात्ताल हवा के साथ
स्वतः बनती भीषण प्रकोप-ज्वाला
जलाती सुन्दर सौन्दर्यवान सुशोभित हरियाली
हवा के हाथों में हाथ डालकर तांडव करती
अमरीका के जंगलों, हिमाचल की घाटियों वनों,
फलों के बागानों, दक्षिण अफ्रीका, साईबेरिया,
आस्ट्रेलिया की सघन वृक्षावलियों, फूलों, फलों को क्षण भर में राख बना देती
आग क्रांति की ज्योति जलाती
आग हमारी चेतना को पौरुष देती
जीवन के विविध सुख-सरंजाम देती
और चिता बनकर
हमारी इयत्ता को मुट्ठी भर राख बना देती
जन ऋषि कहता अग्निदेवो भव
और देवों को प्रसन्न करने के लिए
हवन-यज्ञ करता है
सर्व प्रथमआग की पूजा करता, स्तवन करता
ओम् अग्निदेवो नमः वहां अग्निदेवता
अपने देवत्व की मर्यादा का सम्मान करते
किन्तु मनुष्य की पाप-लीला को
अपनी क्रोध-ज्वाला से कभी भी शमन नहीं कर पाते
हम अग्नि-पथ पर चलते हुए
अपने गन्तव्य तक चलने का जीवनपर्यंत
यत्न करते, नए जीवन के साथ बदलते
अग्निलीला को आत्मसात करते
3 जुलाई, 2012
खालीपन
हर वक्त लगता है
जैसे कुछ ऐसा है कि खो गया है
अलग हो गया है मुझसे
अपने पथ पर चलते हुए
मेरा समय अन्तराल में सो गया है
लगने लगता है सब कुछ व्यर्थ
सबेरे उठकर नास्ता करना, आफिस जाना,
दोपहर में लंच और रात में रंगत के बीच डीनर लेना
प्यार, मोहब्बत के बनावटी बोल की खुशियां देना
सभी खो जाते सच्चाई के बीच अर्थ
उस विनार्थ के मौन से उभरती है प्रतिध्वनि
जो अन्तर के तारों की झंकृत करती
हमारी निराशा का खाली घट भरती
औरत लगता है मै नए क्षणों में जी रहा हूं
नएपन का आत्मबोध
आत्म विस्तृत करता गत-विगत की धूप छाहीं
श्लथ-पथ का अवरोध
क्षण भर में अस्तित्व को उद्वेलित करता
नया दिशा सूचक
लगता है गुलाब की टटकी पंखुड़ियों को
व्यथा-व्यग्र रात का अंतर्द्वंद
चुपके से अनुकणों से धो गया है।
4 जुलाई, 2012
भवितव्य की आस
धीरे-धीरे पहुंच रहा हूं गन्तव्य के पास
इतने दिनों से मन के भीतर रची बसी स्वप्न-विचित्रा
नए परिवेश में
नए नए भेष में
अपनी ऊर्जा प्राप्त करेगी
खंड-खंड हुए जीवन को संपूर्णता का अहसास होगा
मन में होता है नव-उद्भास
धीरे-धीरे पहुंच जाऊंगा अभीष्ट के पास...
इस प्रक्रिया में कितने सारे युग-सत्य
कितने आत्म-सम्मान
जिजीविषा के सार्थक उपमान खो गए
और उन सारी विसंगतियों को
अपने घायल कंधे पर ढोता हुआ चल रहा
एकाकी, मौन
छोड़ता संघर्ष का दीर्घ निश्वास...
हां, पहुंच रहा हूं धीरे-धीरे गन्तव्य के पास
गुनता सृष्टि का इतिहास,
खोजता जीवन के विविध अर्थ
कि कैसे हो जाता सारा कुछ व्यर्थ, शून्य
किन्तु उस शून्यता का भी बड़ा अर्थ होता
और वही तो बनाता प्रारब्ध के विविध आयाम
अस्तित्व-सामर्थ्य के नव अभियान
खोना नहीं है तनिक भी जिजीविषा कशिश
नित्यप्रति नई दिशाएं खोजता ज्ञान-प्राण वान
छोड़े बिना भवितव्य की आस...
5 जुलाई, 2012
लक्ष्य
प्रतिदिन मछली की आंख पर लक्ष्य-संधान करता व्यर्थ
क्योंकि नहीं जानता उस लक्ष्य की इयत्ता
और कठीन साधना की महत्ता
बस खेलते रहते समय से विनार्थ
प्रतिदिन बनाते मन्सूबे
संजोते जीने के लिए विविध पदार्थ
गहन वन-वीथियों, नदियों, सागर-तट पर
भिन्न-भिन दूरियों में बंढ़ता
जीवन-यापन के सरंजामों की गठरी बांधता
कभी यह पथ, कभी वह पथ
श्लथ-पग चलता
एक मेले से दूररे, तीसरे, चौथे...क्रमागत मलों में
अपनी अभीप्सा को बेंचता
मछली की आंख पर सर संधान करने का यत्न करता....
नए प्रभात में
नए-नए दृश्य विन्दुओं के बीच
नए-नए पैमाने गढ़ता, विगाड़ता अथवा आत्मसात करता
सूने अन्तस् -कलश को चिन्ताग्रस्त दिनचर्या से भरता
सुखानुभूति के ताने बाने गढ़ता
समय के भीतर-बाहर
अपने समय-संदर्भों में पलता
जीवन की तितीक्षा-बंध खोलता, बांधता
मछली की आंख पर लक्ष्य साधने का सामर्जुथ जुटाता
6 जुलाई , 2012
जीने का अर्थ
सुख से जीने का अर्थ हैं
अपने को काटना, बांटना
सपनों और आकांक्षाओं के साथ
कई-कई तरह से
अस्मिता को खंडित विभीषिका को
विभिन्न दिशाओं में उछालना.....
जीने के कई अर्थ के साथ जुड़ना
अर्थ के लिए ही विभिन्न रास्तों पर चलते हुए मुड़ना
एक पांव एक पथ पर
दूसरा पांव दूसरे पथ पर
आत्मघाती, निष्ठुर, बासी, कलुषित दिनचर्चाओं की
असंतुलित तुला पर अपने को तौलना
तिलतिल कर अपने समय का विक्रय विनार्थ है
सुख से जीने का क्या यही भावार्थ है।
8 जुलाई , 2012
शब्द-साज
मैं कुम्हार की तरह
चिन्तन-चाक पर
नए-नए शब्द बनाता हू
फिर उन्हें
ज्ञान की आग में पकाता हूं
तरह-तरह के शब्द-शिल्प-पात्र, मोतियां
हाट-बाजार में बेंचता हूं
यह क्रय-विक्रय का क्रम
भीड़ भरे मेले में चलता रहता
स्वीकृति-अस्वीकृति के बीच
शब्द-ज्ञान-घट टूटने का दर्द
आहत मन के आर-पार
गहरे सन्नाटे में बदल जाता
अपने शब्द-ज्ञान-घट को सम्भाले
घूमता रहता सिवान से फुटपाथ तक
अस्तित्व के टूटने की चोट सहता
भिन्न-भिन्न संदर्भों में
भिन्न-भिन्न आत्म-गति-कथा अभिव्यक्ति करता
9 जुलाई , 2012
जीवन की असंपूर्णता
हम जीवन की संपूर्णता से दूर रह जाते
यद्यपि कि उसके लिए
कितनी तरह के कितने सारे कर्म करते जाते
चाहे-अन चाहे कर्म निभाते...
धन-सत्ता हो अथवा सामर्थ्य-सत्ता
प्राण संवेदना के विकष पर
चाहे जितने आकांक्षा-सर संघान करे
तोड़ नहीं पाते संबंधों की जड़ता
जोड़ नहीं पाते रिश्ते नाते...
कहीं न कहीं अन्तस के खालीपन को भरते
अनिष्ट को भी शिष्ट मानकर
आरोपित जीवन जीते
कभी खुशी, कभी गम का वैविध्य अपनाते
यूं ही अवश जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते जाते....
सुख कहां है?
आत्मदर्पण में लगे दाग साफ करते करते
उम्र बीत जाती
छल, दुराव के बीच
जीवन को तरह-तरह से सजाते
सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए ही
धरती पर हम बार-बार आते
फिर भी संपूर्ण नहीं हो पाते.........
10 जुलाई , 2012
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