Friday 13 July 2012

तीन छोटी कविताएं

मेरे हिस्से की धूप
विखर गई रिश्तों में
जिन्दगी जिया भी तो
कई कई किश्तों में

जानने के लिए
बहुत कुछ सुना, देखा, जाना
जिस आदर्श को पिछली पीढ़ी ने दिया
उसी को जीवन का अभीष्ठ माना
और इस अहसास से आत्म विभोर हुआ
कि मुझे हर हालत में गन्तव्य तक है जाना

बहुत कुछ छोड़ दिया
खट्टे-मीठे दिनों से
सम्बन्धों से नाता तोड़ लिया
जलाया अन्तरमन का प्रदीप
उसकी रोशनी में आत्म-व्यथा को जिया


कोलकाता
28.04.2012


गन्तव्य-पथ का संकट
हम धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गए
रास्ते में बनाते रहे संबंधों के सेतु नए-नए
चिन्तन-कैन्वश पर आंकते रहे स्मृतियों के विविध चित्र
और उन्हें आत्मबोध के रंगों से रंगते रहे
फिर भी खालीपन का अहसास भीतर कौंधता रहा
एकाकी मौन की उदासी छाई रही अन्दर बाहर
हृदय के अन्तराल में मचती रही हलचल
झेला उस दुखांत स्थिति का पीड़ाजनित पल
कितने सारे क्षण, मौसम बदलते रहे
और हम अपने गन्तव्य की ओर बढ़ते रहे

कोलकाता
29.4.2012



लड़कियां उम्र भर रोती हैं

लड़कियां उम्र भर दुख और सुख में रोती है
लड़कियां संबंधों का विषाक्त जीवन जीती है

प्रेम के लिए प्रेम का दुर्बोधि-पथ खोजती है
और रह जाती है अकेली, निरुपाय आंचल में बांधे स्मृतियों की थाती
मर्द नाम के भेड़िए से बचती बचाती

लड़कियां उम्र भर प्यार और आंसू का बोझ ढोती है
टूटे विश्वास की प्रत्यंचा पर वेदना के तीर चलाती
उत्श्रृंखला, स्वच्छन्द जीवन में सर्वस्व खोती है
लड़कियां जीवन पर्यंत रोती हैं।

कलकत्ता
30.4.12


कई मौतें मरता रहा
मैं कई मौतें मरता रहा
दुःख के सैलाब में
अपने को बचाता रहा
संवेदना का खाली घट भरता रहा
और फिर जी उठता
सपनों की दुनिया के अंधकार भरे घने जंगल से गुजरता
जिसके बीच से
गन्तव्य-पथ जाता है
मैं बार-बार कांटेदार झाड़ियों से हिरन की तरह फंसता, क्षत-विक्षत होता
व्यथा झर से कहरता रहा
कई मौतें भरता रहा...

कई कई बार गन्तव्य-पथ पर चलते हुए
अवरोध, ठहराव, बाधाएं आती रहीं
प्रत्येक संघर्ष में विजयी होकर आगे बढ़ता रहा
ऊपर पहुंचने की सीढ़ियां चढ़ता रहा
हृदय के खालीपन को
आस्था विश्वास और दृढ़ प्रतिज्ञा से भरता रहा
ऐसे में कई मौतें मरता रहा...
भले ही जंगल -पथ हो, नदी-सागर तट हो
हर डगर पर चलते हुए
तीव्र गति शाली तूफान, घनघोर वर्षा के बीच
हर सिंगार के फूल की तरह झरता रहा
कई मौतें मरता रहा।

कलकत्ता
01.05.12



अस्तित्व युद्ध- विद्ध
मैं ऊबड़ खाबड़ समय की भग्न सड़क पर
चल रहा हूं युद्ध विद्ध
युग की भीड़ भरी चिल्ला हटों के बीच
लोमड़ी की तरह चालाक
गिद्ध आंखों वाले
हृष्ट-पुष्ट, भ्रष्ट, धृष्ट, आत्म-लोभी
जन-शिकारियों की बस्ती पार करता
देख रहा कैसे कैसे छल, प्रपंच,
भ्रष्टाचार की कुर्सियों पर बैठे
मनुष्य के रूप में मांशाहारी गिद्ध
छीनते आमजन के मुंह से निवाले
रोज व रोज कितनी सारी हत्याएं
कितने सारे बलात्कार कर डाले

ऐसे में कविता
की अंगुली थामे चल रहा हूं
सपनों के विखरा व में नए-नए सपनों में पल रहा हूं
कैसे बनाऊं इस स्वेच्छाचारी माहौल में परम्परा के खंडहर पर
शब्द-ज्ञान-प्रणीत-प्रारव्ध-घर
कैसे करुं अपने छन्दों को नवताल-तान-सिद्ध
समय की टेढ़ी मेढ़ी सड़क पर चल रहा अस्तित्व युद्ध विद्ध


कलकत्ता
02.05.12



No comments:

Post a Comment