Saturday 10 March 2012

स्वदेश भारती के उपन्यास पर समीक्षा गोष्ठी सम्पन्न

नवगठित संस्थान साहित्य की चौपाल, छत्तीसगढ़ के तत्वावधान में राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, कोलकाता के अध्यक्ष डॉ. स्वदेश भारती के नक्सली समस्या पर केन्द्रित सद्य प्रकाशित उपन्यास आरण्यक पर सिंघई विला, भिलाई में 6 मार्च, 2012 को समीक्षा संगोष्ठी सम्पन्न हुई। उल्लेखनीय है कि प्रथम प्रमोद वर्मा काव्य सम्मान सहित अनेकों राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित  चौथे सप्तक के कवि डॉ. स्वदेश भारती के अब तक 24 काव्य संकलन 8 उपन्यास प्रकाशित हैं तथा 40 से अधिक ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन भी किया है। वरिष्ठ कवि एवं छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के महामंत्री श्री रवि श्रीवास्तव एवं युवा आलोचक डॉ. जय प्रकाश साव ने आरण्यक पर विशेष टिप्पणी दी। साहित्य की चौपाल के संयोजक श्री अशोक सिंघई ने आलेख प्रस्तुत किया जबकि शायर मुमताज ने गोष्ठी का कुशल संचालन किया व आभार भी व्यक्त किया। ज्ञातव्य है कि डॉ. स्वदेश भारती एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उत्तरा 4 मार्च से 6 मार्च तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए प्रवास पर भिलाई आये हुए थे।

आलेख में कवि व समालोचक श्री अशोक सिंघई ने कहा कि किसी भी उपन्यास को जीवन का चित्र कुछ इस तरह प्रस्तुत करना चाहिए कि वह यथार्थ की वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति करे। स्वदेश भारती जी का आलोच्य उपन्यास आरण्यक इस कसौटी पर कुन्दन की तरह खरा उतरता है। यह उपन्यास हमारे समय की  निरन्तरता में हमारे साथ-साथ ही बीतता है, संघर्षों, त्रासदियों और सभ्यताओं के साथ व्वस्थाओं की विफलताओं का एक बहुआयामी चिन्तक दस्तावेज है। आरण्यक का नायक भीमाराव समाज, धर्मों के तथाकथित झंडाबरदारों के अन्याय, शोषण और दुष्चक्रों के खिलाफ कमर कसता है, समझौते की भाषा न समझने वाला भीमा एक-एक कर समाज के सभी प्रभावी पात्रों के मुखौटों में जाता है, पर अंतहीन महाभारत के अभिमन्यु की तरह अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाता है। आयशा, लाली, आशा जैसी महिला पात्रों के माध्यम से लेखक ने पुरुषवादी समाज के आदिम और बर्बर चेहरे को कई बार बेनकाब किया है। इस  उपन्यास में विचार असंभावित रूप में है जिन्हें हजम करने के लिए  उसमें समय का जल श्रमपूर्वक मिलाना होगा। यदि पाठक के पास धैर्य हो और वह परिश्रमी हो तभी वह चिन्तन के इस प्रकाश को मानसिक आंखों से देख सकेगा। इस सिम्फनी का पूर्णतः रसास्वाद करने के लिए पाठक को विश्व साहित्य की अमर रचनाओं और पात्रों से पाठक को सुपरिचित होना होगा। भारती जी का उपन्यास मुझे अपने तई कैडस्लिकोप जैसा लगता है जिसे जब-जब घुमा-घुमा कर देखा जाये तो हर बार नये बिम्ब, नये चित्र नये अर्थ और अंततः नये विचार उपस्थित होते जाते हैं। मनुष्य के आस्था, विश्वास और संघर्ष की कहानी है आरण्यक। कुल मिलाकर भारती जी आरण्यक एक ऐसा औपन्यासिक अरण्य है जो उसी को मानसिक जीवन जीने देगा जो आरण्यक में जाने, जी पाने की कला तथा कूबत रखते हैं।

लेखकीय उद्बोधन में डॉ. स्वदेश भारती ने कहा कि साहित्य में शिगूफेबाजी नहीं होनी चाहिए। लोकप्रिय लेखन के लिए बहुतेरे तथाकथित बड़े लेखकों ने ऐसा किया और साहित्य, विशेषकर उपन्यास विद्या को बहुत नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने कहा कि मनुष्य अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है और वह वस्तुतः अकेला ही चला जाता है। मनुष्य एकान्तिक और असहाय है। आम आदमी की व्यथा को यदि हम पाठकों तक नहीं लाते हैं तो अपने साहित्य कर्म से गद्दारी करते हैं तथा अपनी आस्था के स्वयं हत्यारे बन जाते हैं। मैंने अपनी रचनात्मकता में मनुष्य को अपने हृदय का प्यार दिया है। प्यार संघर्ष का ही दूसरा नाम है और इस संघर्ष में आत्म बलिदान और आत्म समर्पण होता है। हमें चाहिए कि मनुष्य की चेतना और व्यथा से जुड़ें तभी कुछ सार्थक लेखन संभव हो पायेगा।

उपन्यास पर अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए श्री कवि श्रीवास्तव ने कहा कि इस उपन्यास में मनुष्य के संज्ञान का सारा समय प्रतिबिम्बित होता है। इस उपन्यास से यह प्रतिध्वनि निकलती है कि मनुष्य एक अधबना मकान है जो कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो पाता। उसके निर्माण में कुछ न कुछ कमियां रह ही जाती है और यही मूल बोध हमेशा सुधार और विकास की प्रेरणा स्रोत द्वारा होता है। यह उपन्यास पाठक की परीक्षा लेता है। यदि वह पहले पचास पृष्ठों तक पढ़ने का श्रम और समझने की क्षमता का परिचय दे सके तब ही यह उपन्यास उसे अपने अंतस् में प्रवेश करने देता है।

युवा आलोचक डॉ. जयप्रकाश साव ने विशेष टिप्पणी देते हुए कहा कि साहित्य की अन्य विधायें विषय में बधी हुई नहीं होती पर उपन्यास के लिए विषय पहली शर्त है। यथार्थ अपने नग्न रूप में उपन्साय में ही आता है और अपने समय की क्रूर सच्चाइयों को अभिव्यक्त करता  है। दिक्कत यह है कि अधिकांशतः लेखक शिल्प व कला के खेल में यथार्थ पर एक चमकदार लेप चढ़ा देते हैं जिससे यथार्थ की तल्लखगी कम हो जाती है तथा रचना मर्मस्पर्शी नहीं हो पाती। आरण्यक इसका अपवाद है और नग्न सच्चाइयों को पूरी तरह से सीधे ही प्रस्तुत करता है। नक्सलवाद की आतंकवादी और पूरी तरह से भटकती हुई मानवीय त्रासदी पर केन्द्रित यह उपन्यास विवरणमूलक गद्य, यथार्थ की वस्तुनिष्ठ तटस्थता का एक आदर्श है। इसमें विलक्षण पठनीयता है।

इस अवसर पर वरिष्ठ कवि श्री शरद कोकास एवं श्री नासिर अहमद सिकंदर, कवयित्री श्रीमती शकुन्ताल शर्मा, प्रो. सरोज प्रकाश, श्री प्रकाश, श्री एन. एन. पांडेय, श्री एस.एस. बिन्दा, शायर शेख निजामी, डॉ. नौशाद सिद्दीकी, श्री राधेश्याम सिन्दुरिया, श्री रामबरन कोरी कशिश, शायरा प्रीतिलता सरू, श्री शिवमंगल सिंह सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार व साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। 

No comments:

Post a Comment