Saturday 25 February 2012

चिन्तन की डोर

चिन्तन की डोर में
संवेदना की गागर बांध
अभिव्यक्ति के गहरे कुएं से
सार्थक ज्ञान रस पीने की साध साधे

फिर उसी डोर से समय-प्रवाह में डगमग डोलती,
मन की आत्महन्ता पीड़ा से लदी आस्थावी नाव
प्रेम-तट से बांधे

और समय-असमय देखते रहे
स्मृतियों की उठती गिरती लहरें
हृदय तट से टकराती
प्रच्छालित करती हृदय की चाह
खुली खाली हथेलियों से
कभी भरी भरी, कभी खाली या आधी

अजाने सत्य के पार
मैं देख नहीं पाता आखिर कौन खोलता है
हृदय का द्वार
कौन दे जाता प्रेमोपहार, आनन्द संभार
और कह जाता वह हमारी आस्था ही तो है
जो समय के साथ हरी भरी होती है
घृणा से असमय मुर्झाती है किन्तु
विश्वास के सहारे फूलती फलती है
जीवन-संघर्ष में नहीं मानती अपनी हार
सदा विजयी होकर भर जाती अन्तरमन के अंधकार में प्रकाश
जगा जाती ढाई आखर प्यार विक्षिप्त लहरों के चढ़ाव उतार में
युद्ध विद्ध क्षणों में, कुहासा और अंधकार में
मैं जान नहीं पाता कौन दे जाता प्रेमोपहार
ममता और सांत्वना अपार।

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