Saturday 2 July 2011

सत्ता एवं बुद्धिजीवियों में समन्वय

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से प्रशासकों ने राजकाज के कामों में समाज के बुद्धिवादियों के साथ मंत्रणा का काम आगे बढ़ाया। उन्हें सम्मान दिया। बुद्धिवादियों के सुझावों को विशेष स्थान दिया। इसीलिए  उन महान सम्राटों के साम्राज्य अधिक उन्नतिशील, गौरवशाली तथा धन्यधान्य भरा बने। बुद्धिशक्ति एवं जनशक्ति द्वारा शासन पर राज्य प्रमुख की पकड़ अधिक मजबूती के साथ रहती है। सुल्तानों, मुगलों और अंग्रेजो के शासनकाल में भी इस नीति को अपनाया गया और प्रशासन बेहतर से बेहतर होता गया। परन्तु आजादी के बाद हमारे नेताओं ने अपने को बुद्धिवादियों से दूर तथा अलग-थलक कर लिया। उनके सुझावों पर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। नाही उन्होंने इसकी जरूरत समझी। क्योंकि उनकी सोच के अनुसार सत्ता और प्रशासन की बागडोर नेता सम्भालता है। उसके अतिरिक्त और कोई भला क्यों दखल दे, भले ही बुद्धिजीवी या समाज का आदरणीय पुरुष ही क्यों न हो।
आजादी के बाद प्रशासन ने बुद्धिजीवियों  की परवाह नहीं की। वरिष्ठ नेतृत्व उनसे कटा-बंटा रहा। इससे सत्ता के भ्रष्ट होने तथा लालफीताशाही को मनमानी ढंग से प्रशासन चलाने का अवसर मिला। जिन राजनीतिज्ञों ने बुद्धिवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क साधा उनका सहयोग लिया। अपनी नीति में समन्वय रखा वे सफल हुए। अभी-अभी पश्चिम बंगाल में शासन परिवर्तन होना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है।
देश की राजसत्ता केवल वोट, पुलिस, न्यायापालिका और नेता के अहम के बल पर नहीं चलती। उसके लिए राष्ट्र के प्रति समर्पण, जनसहयोग, बुद्धिवादियों के विचारों, सुझावों को अमल में लाने की क्षमता जरूरी है। आज के संदर्भ में जनतंत्र के शक्तिशाली, उन्नतिशील, गौरवपूर्ण होने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि नेता बुद्धिवादियों के साथ देश को चलाने के लिए नीतियों में समन्वय रखें। इस संदर्भ में सत्ता के उंच्च सिंहासन पर बैठे नेताओं को नये सिरे से सोचना है तथा कारगर उपाय भी करना है। देश के बुद्धिवादियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं स्वैच्छिक संस्थानों के प्रमुखों के साथ आपसी मेल-जोल, विचार-चिन्तन, सुझाव आदि बहुत सारी समस्याओं तथा सवालों के उत्तर हो सकते हैं।

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